त्रि॒मू॒र्धानं॑ स॒प्तर॑श्मिं गृणी॒षेऽनू॑नम॒ग्निं पि॒त्रोरु॒पस्थे॑। नि॒ष॒त्तम॑स्य॒ चर॑तो ध्रु॒वस्य॒ विश्वा॑ दि॒वो रो॑च॒नाप॑प्रि॒वांस॑म् ॥
trimūrdhānaṁ saptaraśmiṁ gṛṇīṣe nūnam agnim pitror upasthe | niṣattam asya carato dhruvasya viśvā divo rocanāpaprivāṁsam ||
त्रि॒ऽमू॒र्धान॑म्। स॒प्तऽर॑श्मिम्। गृ॒णी॒षे॒। अनू॑नम्। अ॒ग्निम्। पि॒त्रोः। उ॒पऽस्थे॑। नि॒ऽस॒त्तम्। अ॒स्य॒। चर॑तः। ध्रु॒वस्य॑। विश्वा॑। दि॒वः। रो॒च॒ना। आ॒प॒प्रि॒ऽवांस॑म् ॥ १.१४६.१
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब एकसौ छयालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि और विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाग्निविद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ।
हे धीमन् यतस्त्वं पित्रोरुपस्थे निसत्तं त्रिमूर्द्धानं सप्तरश्मिमनूनमस्य चरतो ध्रुवस्य चराऽचरस्य दिवश्च विश्वा रोचनापप्रिवांसमग्निमिव वर्त्तमानं विद्वांसं गृणीषे स त्वं विद्यां प्राप्तुमर्हसि ॥ १ ॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥